Mediocre Words..Banal Poetry
Mediocre Words..Banal Poetry

गुरैया

कभी जो सीने पर सर रख कर सोया करती थी
कंधे पर हर दुःख में हक़ से रोया करती थी
जिसकी हर सांस के लिए जिया करते थे
कभी हलकी सी आंच ना आये उसपे
हर पल, हर क्षण ये दुआ करते थे
आज वो दिल का टुकड़ा
पराया कैसे हो गया
दहेज़ के लालचियों पर
वो कैसे यूँ ही जाया हो गया
कभी जो आँखों की नूर थी ,
मेरे माथे का गुरूर थी
आज जब वो चकनाचूर थी ,
तो मेरा साया यूँ दूर,
इतना मज़बूर कैसे हो गया
माना के हर परिंदे की मंज़िल
है खुला नीला आकाश अंतहीन
मेरी नन्ही चोटिल गुरैया के लिए ,
आज क्यों उसका ही आशियाना
है यूँ निर्मम , उदासीन