
कभी जो सीने पर सर रख कर सोया करती थी
कंधे पर हर दुःख में हक़ से रोया करती थी
जिसकी हर सांस के लिए जिया करते थे
कभी हलकी सी आंच ना आये उसपे
हर पल, हर क्षण ये दुआ करते थे
आज वो दिल का टुकड़ा
पराया कैसे हो गया
दहेज़ के लालचियों पर
वो कैसे यूँ ही जाया हो गया
कभी जो आँखों की नूर थी ,
मेरे माथे का गुरूर थी
आज जब वो चकनाचूर थी ,
तो मेरा साया यूँ दूर,
इतना मज़बूर कैसे हो गया
माना के हर परिंदे की मंज़िल
है खुला नीला आकाश अंतहीन
मेरी नन्ही चोटिल गुरैया के लिए ,
आज क्यों उसका ही आशियाना
है यूँ निर्मम , उदासीन