
ये पढ़ कुछ शब्द निकले मुँह से,
शब्द निकले मुँह से तो वो कहाँ रुकने वाले थे बदतमीज़,
अब ग़ज़ल की तो औकात नहीं,
ये बेशर्म गीत ही सही,
बात जब बिकने बिकाने की है तो आज सब बिकेगा,
रील्स पे जाओगे तो कुछ कन्याओं के कपड़े बिकेंगे, झिझक बिकेगी,
युवाओं की गालियाँ बिकेंगी,
कहीं चूड़ियाँ और कंगन बिकेंगे,
पब्लिक की कॉमन सेंस बिकेगी,
कहीं नफ़रत बिकेगी,
कहीं प्यार बिकेगा,
कहीं पशुओं की किलकारी बिकेगी,
कहीं उनकी मसालेदार करी बिकेगी,
कहीं किसी का उभरता हुआ हुनर बिकेगा,
कहीं किसी बुजुर्ग का जीवन-ए-जर्जर झुकेगा
कुछ बच्चों के बचपन बिकेंगे,
कुछ अनदेखी कलाओं के आँसू बिकेंगे,
कहीं नकली नाखून बिकेंगे,
कहीं असली खून बिकेगा,
कहीं किसी लाचार का धड़कता शरीर बिकेगा,
कहीं किसी गरीब का फड़कता गुर्दा बिकेगा,
मेरे जैसे के पेज पर आओगे
तो फटे पुराने पन्नों से हल्के से जीवित सपने बिकेंगे,
कभी गुरूर होता था,
ज़मीर नहीं बिकने देंगे,
आत्मा पे आँच न आने देंगे…
जो जैसा बिकता है बिके, हम न बिकेंगे…
कुछ दिनों में ही गुरूर भी टूटा, भ्रम भी टूटा…
जब समझे बिके हुओं ने अपना दर्द बेचा,
अपनी शर्म और नंगापन बेचा,
अपनी हैवानियत बेची…
शायद किसी की रूह डर गयी थी,
किसी का हालात से मन भर गया था,
किसी का एहसास मर गया था,
कहाँ एक फटीचर लेखक अपने अहम का रोता है,
नग्न-आत्माओं को बेचने की कतार में सबसे पहले खड़ा होता है…
खरीदने वाला हो तो सब बिकता है..
लेकिन कीमत अच्छी न लगे तो दिल रोता है..
ऐ खरीदने वाले तू यूँ न इतरा, न मोल-भाव कर और न कम दाम लगा…
उस ईश्वर के सामने अच्छे अच्छों का अहंकार बिकेगा।